Uttarakhand: एक जमाना… जब राजनीतिक दलों को नहीं मिलते थे बूथ एजेंट, 70 के दशक की कहानी शतायु कलावती की जुबानी
Uttarakand News – 70 के दशक में भी चुनाव के दौरान राजनीतिक दलों को बूथ एजेंट तक नहीं मिल पाते थे। अनुसूचित जाति आरक्षित विधानसभा उपचुनाव को लेकर स्वतंत्रता संग्राम सेनानी स्व. प्रेमानंद खोलिया की पुत्री शतायु कलावती पुराने किस्से सुनाती हैं। कलावती कहती हैं कि बड़ी मुश्किल से एक व्यक्ति को बूथ एजेंट के लिए तैयार किया जाता था।
गरुड़ [चंद्रशेखर बड़सीला]। 70 के दशक में भी चुनाव के दौरान राजनीतिक दलों को बूथ एजेंट तक नहीं मिल पाते थे। अनुसूचित जाति आरक्षित विधानसभा उपचुनाव को लेकर स्वतंत्रता संग्राम सेनानी स्व. प्रेमानंद खोलिया की पुत्री शतायु कलावती पुराने किस्से सुनाती हैं।
कलावती कहती हैं कि बड़ी मुश्किल से एक व्यक्ति को बूथ एजेंट के लिए तैयार किया जाता था। बूथ एजेंट को चुनाव प्रचार समाप्त होने के दिन राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता एक मतदाता सूची, पार्टी के दो बैज और चुनाव के दिन का खाने का खर्च एक रुपया देते थे। तब एजेंट बनाने के लिए लोगों को गांव-गांव से बुलाना पड़ता था। फिर भी अधिकांश बूथों पर एजेंट नहीं मिल पाते थे।
गेरु से लिखे जाते थे नारे
मटेना ग्राम पंचायत के स्यालाटीट निवासी वयोवृद्ध कलावती देवी ने अतीत का वह समय देखा है, जब राजनीतिक दलों को गांवों में प्रचार- प्रसार के लिए लोग नहीं मिलते थे। आज की तरह तब गांवों में लोग किसी भी राजनीतिक दल से जुड़े नहीं रहते थे। आज की तरह बैनर, पोस्टर नहीं थे। लाउडस्पीकर का शोर भी नहीं था। गेरुवे से कहीं-कहीं पर नारे लिखे जाते थे।
जीतने के बाद भी विधायक क्षेत्र में नहीं आते थे
कलावती बताती हैं कि बहुत कम लोग वोट देते थे। इतनी जागरूकता नहीं थी। महिलाएं तो न के बराबर वोट करती थीं। बहुत कम लोग चुनाव लड़ते थे। उम्मीदवार का क्षेत्र काफी बड़ा होता था। उसको देखना मुश्किल था। जीतने के बाद भी विधायक क्षेत्र में नहीं आते थे।
उम्मीदवारों में एक-दूसरे के प्रति द्वेष भावना नहीं थी। गांव के मुखिया के पास उम्मीदवार की चिट्ठी आती थी। मुखिया ही आवाज लगाकर लोगों को चुनाव के बारे में बताते थे। अब सब बदल गया है।